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प्र वां॑ श॒रद्वा॑न्वृष॒भो न नि॒ष्षाट् पू॒र्वीरिष॑श्चरति॒ मध्व॑ इ॒ष्णन्। एवै॑र॒न्यस्य॑ पी॒पय॑न्त॒ वाजै॒र्वेष॑न्तीरू॒र्ध्वा न॒द्यो॑ न॒ आगु॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vāṁ śaradvān vṛṣabho na niṣṣāṭ pūrvīr iṣaś carati madhva iṣṇan | evair anyasya pīpayanta vājair veṣantīr ūrdhvā nadyo na āguḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वा॒म्। श॒रत्ऽवा॑न्। वृ॒ष॒भः। न। नि॒ष्षाट्। पू॒र्वीः। इषः॑। च॒र॒ति॒। मध्वः॑। इ॒ष्णन्। एवैः॑। अ॒न्यस्य॑। पी॒पय॑न्त। वाजैः॑। वेष॑न्तीः। ऊ॒र्ध्वाः। न॒द्यः॑। नः॒। आ। अ॒गुः॒ ॥ १.१८१.६

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:181» मन्त्र:6 | अष्टक:2» अध्याय:4» वर्ग:26» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:24» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे अध्यापकोपदेशक जनो ! जैसे (वाम्) तुम्हारा (शरद्वान्) शरद् जो ऋतुएँ वे जिनमें विद्यमान वह (वृषभः) वर्षा करानेवाला जो सूर्य्यमण्डल उसके (न) समान (निष्षाट्) निरन्तर सहनशील जन (पूर्वीः) अगले समय में प्राप्त हुई प्रजा (इषः) और जानने योग्य प्रजा जनों को (चरति) प्राप्त होता है वा (मध्वः) मधुर पदार्थों को (इष्णन्) चाहता हुआ (एवैः) प्राप्ति करानेवाले पदार्थों से (अन्यस्य) दूसरे की पिछली वा जानने योग्य अगली प्रजाओं को प्राप्त होता है वैसे (वाजैः) वेगों के साथ वर्त्तमान (ऊर्द्ध्वाः) ऊपर को जानेवाली लपटें वा (वेषन्तीः) इधर-उधर व्याप्त होनेवाली (नद्यः) नदियाँ (नः) हम लोगों को (प्र, पीपयन्त) वृद्धि दिलाती हैं और (आगुः) प्राप्त होती हैं ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो आप्त अध्यापक और उपदेशकों से विद्याओं को प्राप्त होके औरों को देते हैं, वे अग्नि के तुल्य तेजस्वी शुद्ध होकर सब ओर से वर्त्तमान हैं ॥ ६ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अध्यापकोपदेशकौ यथा वां शरद्वान् वृषभो न निष्षाट् पूर्वीरिषश्चरति मध्व इष्णन्नेवैरन्यस्य पूर्वीरिषः प्राप्नोति तथा वाजैस्सह वर्त्तमाना ऊर्द्ध्वा वेषन्तीर्नद्योऽनोऽस्मान् प्रपीपयन्त आगुः ॥ ६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) प्रकर्षे (वाम्) युवयोः (शरद्वान्) शरदो या ऋतवस्ता विद्यन्ते यस्मिन् सः (वृषभः) वृष्टिकर्त्ता (न) इव (निष्षाट्) यो नितरां सहते (पूर्वीः) पूर्वं प्राप्ताः (इषः) ज्ञातव्याः प्रजाः (चरति) प्राप्नोति (मध्वः) मधूनि (इष्णन्) इच्छन् (एवैः) प्रापकैः (अन्यस्य) भिन्नस्य (पीपयन्त) वर्द्धयन्ति (वाजैः) वेगैः (वेषन्तीः) व्याप्नुवत्यः (ऊर्द्ध्वाः) ऊर्द्ध्वं गामिन्यो ज्वालाः (नद्यः) सरितः (न) अस्मान् (आ) समन्तात् (अगुः) व्याप्नुवन्तु ॥ ६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आप्तयोरध्यापकोपदेशकयोः सकाशाद्विद्याः प्राप्याऽन्यान्ददति तेऽग्निवत्तेजस्विनः शुद्धा भूत्वा सर्वतो वर्त्तन्ते ॥ ६ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे आप्त अध्यापक व उपदेशकाकडून विद्या प्राप्त करतात व इतरांनाही देतात ते अग्नीप्रमाणे तेजस्वी व शुद्ध होतात. ॥ ६ ॥